15 अगस्त पर ‘शोले’ की रिलीज़ का छिपा संदेश

1975 में 15 अगस्त को रिलीज हुई ‘शोले’ महज एक हिंसा प्रधान फिल्म नहीं थी, बल्कि आजादी और सामाजिक एकता के संदेश को परदे पर उतारने का अप्रत्याशित माध्यम भी बनी। उस दौर में स्वतंत्रता दिवस पर देशभक्ति या सामाजिक मेल-जोल की कहानियों का रिवाज था, लेकिन रमेश सिप्पी की इस ब्लॉकबस्टर ने अपने डकैत विरोधी संघर्ष के जरिए एक अलग तरह की आजादी की कहानी पेश की।

फिल्म का गब्बर सिंह न किसी जाति का था, न धर्म का — वह पूरे समाज का दुश्मन था। रामगढ़ के किसान उसके आतंक में जी रहे थे, और ठाकुर बलदेव सिंह, जय-वीरू की मदद से उन्हें इस दहशत से मुक्ति दिलाते हैं। यह केवल डाकुओं पर जीत की कथा नहीं थी, बल्कि यह उस स्वतंत्रता का प्रतीक थी जो खून-पसीने की कीमत पर मिलती है। फिल्म के कई दृश्यों में अंग्रेजी हुकूमत के ज़ुल्म और गब्बर के आतंक के बीच समानता भी साफ झलकती है।

हालांकि ‘शोले’ में सीधे-सीधे स्वतंत्रता दिवस का उल्लेख नहीं, लेकिन इसकी कहानी स्वतंत्रता की असल भावना से मेल खाती है — भयमुक्त समाज, भाईचारा और न्याय की जीत। दर्शकों ने पंद्रह अगस्त के दिन गब्बर जैसे निर्दयी डाकू का पतन देखा, जो एक प्रतीकात्मक संदेश था कि आजादी सिर्फ अतीत का जश्न नहीं, बल्कि अन्याय और अत्याचार के हर रूप से मुक्ति की सतत यात्रा है।

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