ईरान में रह रहे यहूदी किसके साथ—इज़राइल या ईरान?

ईरान और इज़राइल के बीच बढ़ते तनाव ने ईरान में रह रहे यहूदी समुदाय को मुश्किल दुविधा में डाल दिया है। जहां एक ओर वे अपने धर्म से जुड़ाव महसूस करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे खुद को पहले ईरानी मानते हैं। हालिया इज़राइली एयरस्ट्राइक्स में तेहरान और इस्फहान जैसे शहरों को निशाना बनाया गया, जहां यहूदी समुदाय बड़ी संख्या में रहता है। इसके बाद ईरानी संसद के यहूदी प्रतिनिधि होमायून सामेह ने इज़राइल की कड़ी निंदा करते हुए कहा, “यह हमला दर्शाता है कि इज़राइल एक हिंसक शासन है जिसे मानवता की कोई परवाह नहीं।”

यहूदी समुदाय का डर सरकार से कम और भीड़ से ज़्यादा है। उन्हें आशंका है कि इज़राइल के किसी हमले के बाद गुस्साई भीड़ उनका निशाना न बना ले। बावजूद इसके, वे ईरान को ही अपना घर मानते हैं और ज़ोर देकर कहते हैं कि वे ज़ायनिज़्म से नहीं जुड़ते। धार्मिक स्वतंत्रता के बावजूद, सिविल राइट्स के स्तर पर यहूदियों को कई पाबंदियों का सामना करना पड़ता है—जैसे न्यायालय में गवाही का कम महत्व, सरकारी उच्च पदों पर प्रतिबंध, और शरीयत कानून की सीमाएं।

इतिहास गवाह है कि कभी ईरान में यहूदियों का सुनहरा दौर भी था, खासकर रेजा शाह पहलवी के शासनकाल में। लेकिन 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद स्थिति बदली। अब जबकि संख्या घटकर महज 9–15 हजार रह गई है, ईरानी यहूदी एक जटिल पहचान के साथ जीते हैं—जहां वे न तो पूरी तरह इज़राइल के साथ हैं, न ही खुद को उससे जोड़ना चाहते हैं। उनकी प्राथमिकता है: शांति, सुरक्षा और अपनी धार्मिक अस्मिता की रक्षा।

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